Tuesday, July 23, 2013

मकान

लोहा को जमीन के भीतर से निकाला
रेत निकाला नदियों की तलहटी से
पहाड़ों को तोड़ बनाए गिट्टियों के बीज
मिट्टी को कोयले की आंच में पका
बनाया एक नंबर, दो नंबर सूर्ख ईंटे।  
 
 
रेत, सीमेंट, ईंट, कुछ छड़ें, ईंटें  
जमीन में बो आया एक दिन
आस थी कि मकान उग जाएगा किसी रोज
सींचता रहा रोज-रोज आस की खेती
 
पहाड़ बढ़ता रहता है रोजरोज
बालू बहता है नदी के संग-संग
लौह अयस्क बदलता है रूप धरती में
सब जिंदा हैं, जीवंत कायनात में
 
 
फिर भी खेती उगी नहीं कभी
बहुत सींचा, रात-रात भर जाग
जमीन पर नहीं उगी एक झोपड़ी भी
 
 
गिट्टियों ने कहा, पहाड़ के संग बढ़ती थी मैं
बोली रेत, नदीं के प्यार में बहती थी वह
माटी बोली, मुझे तपा बना दिया सूर्ख ईंट
कर दिया उलट-पुलट सब, तोड़ दिए कई घर
 
क्यों किया लोहा को धरती से जुदा
क्यों‌ किया रेत को नदी से अलग
क्यों किया पहाड़ में तोड़फोड़
 
धरती को चीर-फाड़ कर कैसे रहोगे आबाद
कैसा है बेदर्द तुम्हारा घर का यह ख्वाब।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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