Tuesday, January 15, 2013

राजनारायण को देखा नहीं कभी

मैंने राजनारायण को नहीं देखा। उस राजनारायण को नहीं देखा जिसकी तस्वीर दुनिया देखने के लालायित थी। जब उन्होंने अजेय इंदिरा गांधी को न्यायपालिका और जनता की अदालत में हराया तो उनकी तस्वीर देखने के लिए अमेरिका लालायित था। अमेरिका से आने वाले भारतीय बनारस में स्टूडियो से उनकी तस्वीरे खोजते थे।गांधी जी की तस्वीर तीन लाइनों में कोई कलाकार बना सकता है। राजनारायण की तस्वीर बनाने के लिए कार्टूनिस्ट कांजीलाल दादा को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती होगी। लोको इंजन के चालक की तरह एक रूमाल पेशानी पर बांधने और दाढ़ी खींचने से काम चल जाता होगा। उस राजनारायण को मैंने नहीं देखा।
लोकसभा चुनाव का मतदान हो चुका था। सन 1984 में डबल बूस्टर लगाने पर टेलीविजन दिखता था। मतगणना टेलीविजन वाले घरों में नए साल के जश्न की तरह होता था। आधी रात को बहू बेगम फिल्म रोक दी गई। बागपत के नतीजे प्रसारित किए गए, जिसका सबको पता था। वहां से हनुमान (राजनारायण) राम (चौधरी चरण सिंह ) से लड़ रहे थे और हार गए। तब भी मैंने राजनारायण को नहीं देखा। सन 1977 के चुनाव में गांवों में नासमझी में नसबंदी के तीन दलाल, खा गई राशन, पी गई तेल जैसे नारे लगाए थे। उस समय भी राजनारायण को नहीं देखा था। उस राजनारायण को जिसने लोकतंत्र क्रांति के लोहे पर निर्णायक चोट मारी थी। मैंने इस बात को लड़कपन में नहीं समझा लेकिन जो उस आंदोलन से निकल कर आए उन्होंने क्यों नहीं समझा? यह बात मैं उसी तरह नहीं समझ पाया, जिस तरह राजनारायण को देख नहीं पाया। उस दौर के तमाम नेताओं को मैंने देखा। चौधरी चरण सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, मोरारजी भाई देसाई, दक्षिण से आने वाले नंदमूरि तारक रामाराव को भी लेकिन राजनारायण को क्यों नहीं देखा जबकि वह सबसे करीब के रहने वाले थे। बहुगुणा को अमिताभ बच्चन के हाथों हारते देखा था तब भी राजनारायण को नहीं देख पाया।
गांव में पंडितों ने यजमानों के यहां पूड़ी खाना बंद कर दिया। भोज-परोज में वे खाते ही नहीं थे जब तक कि यजमान उनको दिखा न दें कि खाना देशी घी में बन रहा है। तीसी, बर्रे का तेल उस जमाने में कीमती हो गया था। बताते हैं कि इसमें राजनारायण का हाथ था। उनसे किसी ने वनस्पति तेल में चर्बी मिलाने की बात कही थी और उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया था। आंदोलन गांव-गांव में चला गया। अपने तेल, घी पर लोग भरोसा करने लगे। इस तरह मैंने राजनारायण को महसूस किया, देखा तब भी नहीं।
महसूस उनको तब भी किया जब बनारस में स्वास्थ्य की रिपोर्टिगिं कर रहा था। स्वास्थ्यमंत्री रहते हुए उन्होंने इलाज एकदम मुफ्त कर दिया था। अस्पताल में अठन्नी की पर्ची बनती थी। उनके जाने के डेढ़ दशक बाद उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में यूजर चार्जेज लगने शुरू हुए। उन्होंने गांवों में सेहत की आरंभिक देखभाल के लिए स्वास्थ्य सेवकों की तैनाती की थी। बाद में कांग्रेस की सरकारों को उनकी फिक्र नहीं रही। उनको डेढ़-दो सौ रुपये का मानदेय भी नहीं मिलने लगा। उनमें से तमाम ने झोलाछाप डाक्टर के रूप में काम करना शुरू कर दिया और लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने लगे। उनकी लड़ाई को अपनी आंखों में मैंने देखा लेकिन राजनारायण को तब भी नहीं देखा पाया। आज आशा बहुओं की तैनाती हो गई है गांव-गांव लेकिन तब किसी ने राजनारायण को नहीं सोचा होगा। कागज के रुपये देख कर कोई मुहम्मद बिन तुगलक को याद करता है क्या? तो आशाओं को देख कर कोई राजनारायण को क्यों याद करे?
काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश पर कोई रोक नहीं है। मंदिर के मुख्य द्वार पर एक दशक पहले तक एक बोर्ड लगा था, जिसमें लिखा था कि इस मंदिर में सनातन धर्म में आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। अब वह भी हट गया है। यह अनायास नहीं हुआ था। राजनारायण, प्रभुनारायण सिंह सरीखे नेताओं ने 1956 में इसके लिए आंदोलन चलाया था। करपात्री स्वामी जैसे सनातनधर्मियों को बात नागवार गुजरी थी। उन्होंने अलग विश्वनाथ मंदिर स्थापित कर लिया लेकिन भगवान को भी भक्त की दरकार होती है। बाबा विश्वनाथ अपने मंदिर में ही बने रहे और आस्थावानों के केंद्र में रहे। मंदिर में जाते समय कोई कहां सोचता है कि राजनारायण ने उसके पट को विरोध के बावजूद सबके लिए खोलवा दिया था। सनातन और पुरातन नगरी काशी को इस बात पर गर्व हो सकता है कि उस नगरी में प्रायर् सभी मंदिरों में छुआछूत का मर्ज नहीं है। किसी मंदिर में जाते समय मैं क्या कोई नहीं सोचता कि राजनारायण नहीं होते तो क्या होता? संकट मोचन विस्फोट के समय बेरोकटोक मंदिर में जाने से झिझक रही बसपा अध्यक्ष मायावती सम्मान पाकर जब भावुक हो गईं थी, तब उनके जेहन में राजनारायण की छवि उभरी थी या नहीं, नहीं जानता। इतना जरूर जानता हूं कि तब मैंने भी नहीं सोचा था कि राजनारायण को देखा क्यों नहीं?
अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के वे अगुवा थे। विक्टोरिया की मूर्ति उनके नेतृत्व में ही हटाई गई थी। यह बात मैंने सुनी है। इसे उसी तरह नहीं देखा, जैसे राजनारायण को नहीं देखा। बनारस का जिला प्रशासन भी उन्हें कोई मशहूर हस्ती तो मानता नहीं। वेबसाइट में हस्तियों की सूची में तो उनके नाम का उल्लेख उसी तरह नहीं है जिस तरह रविदास का नहीं है। प्रशासनिक वेबसाइट पर मशहूर हस्ती वह भले न हो लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची में राजनारायण, पिता-अनंत नारायण सिंह, गंगापुर, ही पार्टिशिपेटेड इन फ्रीडम फाइटिंग इन 1942-लिख कर उनका मान जरूर बढ़ाया है। मैंने काफी खोजने के बाद यह बात देखी लेकिन राजनारायण को फिर भी नहीं देखा। राजनारायण के नहीं होने पर इंदिरा गांधी कोर्ट नहीं हारतीं। नहीं हारतीं तो इमरजेंसी नहीं लगती। इमजेंसी नहीं लगती तो तमाम लोग का वजूद भले ही होता लेकिन उनके होने के मायने नहीं होते। उनकी तरह राजनारायण की अनदेखी नहीं कर रहा बल्कि सिर्फ इतना कह रहा हूं कि बस मैंने उनको देखा नहीं।

-अजय राय 

Wednesday, January 2, 2013

इतिहास



इतिहास की किताब होती हैं स्त्रियां
उन्हें भूगोल मान कर पढ़ने की कोशिश
गलती को न्योता देना है
दिल वालों, दिल्ली वालों।

भूगोल के मर्मज्ञ भी
छोड़ नहीं पाते लोभ
भूगोल का इतिहास जानने का
स्त्रियों के अतीत में झांकने का
मुनियों ने गुना, शास्त्रों में कहा
होता है पाप का कारण लोभ
बेहतर है छोड़ दिया जाए
इतिहास में झांकने का लोभ

अभी वक्त नहीं आया
स्त्रियों के तारीख के खुलने का
कोई सह कहां पाएगा आज
उसकी दहन, उसका ताप
दिल वालों, दिल्ली वालों।

जनतंत्र का तकाजा


तकाजा तो था कि
तुम कहते, हम सुनते
जब हम बोलते
तब तुम चुपचाप सुनते

जब मैं बोलता हूं
तब तुम सुनते नहीं
अपनी ही कहेगे तो
कहां पहुंचेंगे सब

कुछ कहेंगे आप
हम तकाजों का करते रहेंगे तकादा
तो कहां जाएगा देश
क्या जनतंत्र कहलाता रहेगा यूं हीं नाखादा
या कहने, सुनने की नातेदारी से
बनेगी बात कोई अब।