Friday, September 22, 2023

तलाश में

 जड़ की तलाश में भटका मैं दिल्ली

उमस थी, धूप थी, बारिश भी कुछ हुई

दरख़्त थे, पौधे भी, शाखें भी थीं नई

आसमान में वो कहाँ जिसकी तलाश थी।


जो जंग -ए-आजादी में हो गए फना

उनके बहाने खोजते थे शक्ल हम यहां 

मालूम हुआ ये कि जंग है जारी, हलाक हैं सभी 

 जड़ सहेज सहेज रखने का  दिल्ली में दम नहीं।

चीखता है।

 चीखता है


वो बच्चा चीखता है

गली में पड़ा है, चीखता है

मदरसे में खड़ा हो चीखता है

बेबात झगड़ता है चीखता है


संसद में खड़ा हो चीखता है

आंगन में उतरकर चीखता है


दफ्तर में पड़ा है, चीखता है

नुक्कड़ पर खड़ा हो चीखता है

हाशिये पर पड़ा है पर चीखता है

तुम्हारी बात कहता है

तुम्हीं पर चीखता है

हां बहुत बदमाश है बच्चा

बहुत ही चीखता है


कभी तुम खुद को देखो

अपनी चुप्पी को समझो

तुम्हारी बात ही तो कहता है

जब वो चीखता है।

Friday, October 3, 2014

मेरे गांव की नदी

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सूखे में उफनाती
बाढ़ में दुबराती
करती कई कमाल
मेरे गांव की नदी
 
 
कहते हैं चाचा सलखन
जड़ें हैं इसकी गहरी
पाताल तक छितराई हुई
ईरान से तूरान और
चीन से जापान तक
भीतर-भीतर पसरी  
मेरे गांव की नदी
 
दुनिया के कोने-कोने में
कई तहखाने हैं इसके
जिनमें छुपा रखती है खूब पानी
मेरे गांव की नदी
 
तपती है धरती जब
व्याकुल हो उठती हैं नदियां जब
फुंफकारती है, उफनाती है
तहखानों से पानी ला
हो जाती है लबालब
मेरे गांव की नदी
 
जब नदियां सूख जाती हैं तब भी
चलते रहते हैं कारोबार इस पर
चलते रहते हैं मालवाहक जहाज,
चलती रहती हैं सैलानियों भरी नावें
गुलजार रहती है मेरे गांव की नदी
 
ख्वाबों की केती को सींचती हुई
सपनों की प्यास का पसारा समेटती
पत्थरों, रोड़ों को पीस बालू बनाती
दौड़ती जाती है मेरे गांव की नदी
 
 
डरते हैं आचमन करने में   
कोई नहीं पीता इसका पानी
कहते हैं चाचा सलखन
शापित है मेरे गांव की नदी।
 

अजय राय  

Wednesday, January 1, 2014

खुलती जाती हैं गांठें

गहरा है माया का जाल
माया की भाषा में सच नहीं बंधता
वो जानते हैं भाषा का मर्म
वो कहते हैं सहलाने नहीं,
समझने-समझाने की चीज है मर्म
 कौन समझाए उनको
क्यों समझ में आता नहीं मर्म
कभी उसे सहला कर देखो
देखो कैसे खुलती जाती हैं गाठें  



 

एक और साल

मुट्ठी में बंद थीं उम्मीदें
भींची थी मुट्ठी कस के
पसीने-पसीने हो सरक गया
रीत गया एक साल
बीत गया एक साल
दोस्तों की बधा‌इयों से उपजा
घड़ी की टिक-टिक से निकला
छल गया एक और साल 
 

Sunday, November 17, 2013

इस घाट पर, उस घाट पर


रेत की सतह से उठता चांद
रश्मियां फेंकता है हर घाट पर
पानी पर तैरती किरणों का सोना
लुटता है हर एक घाट पर
 
नाविक जानते हैं नहीं टिकतीं
चांद की सोना किरणें पानी पर
किसी घाट पर नहीं लुटाता रश्मियां
चांद की किरणें की यह अदा है झूठ
झूठ है होना‌ रश्मियों का हर घाट पर
 
बुजुर्गों ने मोक्ष नगरी के निवासियों से
कहा था कभी कि सब कुछ है मिथ्या
चांद, नदी, घाट, रश्मियां, उत्सव और हम
माया नगरी है, लुट जाएगी
मोनू माझी को है इस बात पर भरोसा
फिर भी उसे खेनी पड़ती है नाव
इस घाट पर, उस घाट पर, हर घाट पर
 

-अजय राय 

Saturday, November 9, 2013

केवल नदी नहीं मरती



रेत है, पानी है, रवानी है
यह गंगा है, इस जमाने की एक नदी है

बुढ़वा मंगल, नाग नथैया
तमाम महोत्सव की ताता थैया
भगीरथ के पुरखों को तारने वाली
गंगा, नदी है पानी, कीचड़ काई से भरी

स्नान, मुक्ति, ठगी, ढोंग, मोक्ष
पंडों, पुरोहितयों, किवंदतियों
और मिथकों की दास्तान
गंगा है जो नदी है, जिसमें पानी है
रेत है, मछलियां हैं, मगरमच्छ हैं

सरस्वती एक नदी थी, उफनाती हुई
भागती-दौड़ती, पानी से लबालब भरी
उसके तट पर रोज होते थे उत्सव
सरस्वती अब खोज है, इतिहास है
जहां सरस्वती बहती थी, वहां लेटी हुई है रेत

सुना‌ है नदी हमेशा नदी ही नहीं रहती
कहानियों, किस्सों, झूठ और फरेब से घिर
एक दिन वह दफ्न हो जाती है जमी‌न में
बन जाती है रेत, सरस्वती की तरह।

गंगा में रेत है, पानी है और रवानी है
गंगा, अभी एक नदी है, जिंदगी है
थोड़ा संभालिए खुद को
क्योंकि नदी केवल नदी नहीं होती मरते वक्त
उसके साथ दफ्न हो जाती है एक सभ्यता भी।

अजय राय-धूमिल जयंती पर