Sunday, November 17, 2013

इस घाट पर, उस घाट पर


रेत की सतह से उठता चांद
रश्मियां फेंकता है हर घाट पर
पानी पर तैरती किरणों का सोना
लुटता है हर एक घाट पर
 
नाविक जानते हैं नहीं टिकतीं
चांद की सोना किरणें पानी पर
किसी घाट पर नहीं लुटाता रश्मियां
चांद की किरणें की यह अदा है झूठ
झूठ है होना‌ रश्मियों का हर घाट पर
 
बुजुर्गों ने मोक्ष नगरी के निवासियों से
कहा था कभी कि सब कुछ है मिथ्या
चांद, नदी, घाट, रश्मियां, उत्सव और हम
माया नगरी है, लुट जाएगी
मोनू माझी को है इस बात पर भरोसा
फिर भी उसे खेनी पड़ती है नाव
इस घाट पर, उस घाट पर, हर घाट पर
 

-अजय राय 

Saturday, November 9, 2013

केवल नदी नहीं मरती



रेत है, पानी है, रवानी है
यह गंगा है, इस जमाने की एक नदी है

बुढ़वा मंगल, नाग नथैया
तमाम महोत्सव की ताता थैया
भगीरथ के पुरखों को तारने वाली
गंगा, नदी है पानी, कीचड़ काई से भरी

स्नान, मुक्ति, ठगी, ढोंग, मोक्ष
पंडों, पुरोहितयों, किवंदतियों
और मिथकों की दास्तान
गंगा है जो नदी है, जिसमें पानी है
रेत है, मछलियां हैं, मगरमच्छ हैं

सरस्वती एक नदी थी, उफनाती हुई
भागती-दौड़ती, पानी से लबालब भरी
उसके तट पर रोज होते थे उत्सव
सरस्वती अब खोज है, इतिहास है
जहां सरस्वती बहती थी, वहां लेटी हुई है रेत

सुना‌ है नदी हमेशा नदी ही नहीं रहती
कहानियों, किस्सों, झूठ और फरेब से घिर
एक दिन वह दफ्न हो जाती है जमी‌न में
बन जाती है रेत, सरस्वती की तरह।

गंगा में रेत है, पानी है और रवानी है
गंगा, अभी एक नदी है, जिंदगी है
थोड़ा संभालिए खुद को
क्योंकि नदी केवल नदी नहीं होती मरते वक्त
उसके साथ दफ्न हो जाती है एक सभ्यता भी।

अजय राय-धूमिल जयंती पर 

Sunday, October 13, 2013

बारिश सिर्फ बारिश नहीं होती

 आसमान से जब बरसती हैं बूंदें
तब वर्षा सिर्फ बारिश नहीं होती

कभी पानी की बूंदों के संग बरसती है खुशी
कभी पानी की बूंदों के साथ आती है सर्दी
कभी मोती जैसी बूंदों में घुल कर आती है जिंदगी
कभी बूंद-बूंद बरस जाती है तबाही

आसमान से जब बरसती हैं बूंदें
तब वर्षा सिर्फ बारिश नहीं होती

बूंदों में घुल मिलकर बरसती है तेजाब
बूंद-बूंद मिलकर बन जाता है सैलाब
बारिश की बूंदें गिरती हैं बनकर अनेक
धरती पर होकर एक, बनती हैं सैलाब

सैलाब जो बहा ले जाता है सब कुछ
सैलाब जो बहा ले जाता है सपने, अपने

कैसे कहूं, आसमान से बरसती बू्ंदें
हमेशा वर्षा नहीं होतीं, हरियाली नहीं होतीं

Saturday, October 12, 2013

रावण से नहीं डरता

रावण अंकल मुंह खोले, थोड़ा बड़ा
ताकि भीतर से रंग दूं लाल-लाल
जब नाभि में लगे राम का अग्निबाण
बदन में लगी आठ से उठी लपटों में
दमके बनारसी पान जमा मुखड़ा।

नन्हा रहमान नहीं डरता रावण से
पुतले की खूंखार मूंछें, लपलपाती जीभ रंगते वक्त
नहीं डरता है जब ठूंस-ठूंस कर भरा जाता है बारूद
वह डरता है तब, जब छिड़ती है लंका में जंग
जब दौड़ने लगती है वानरी सेना नारा लगाती हुई।
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-अजय राय

दशानन अबकी हार भी जाओ ना


दशानन अबकी हार भी जाओ ना

जब अपने शीश चढ़ाया बार-बार तुमने
तब क्यों रोका यज्ञ में बलि की प्रथा दशानन

जंगल में तपस्वी हो रहे परेशान
राक्षस भंग कर रहे उनका तप
हत्यारे घूम रहे सत्ता पर काबिज होने
राम उलझ गए राजनीतिक मुद्दे में

दशानन तुम पर आई जिम्मेदारी भारी
अबकी बार तुम खुद ही हारो ना।


ज्ञानेंद्रियां हैं धोखा, कर्मेंद्रियां छलावा
तुम तो ठहरे ज्ञानी, समय की मांग समझो
हार ही में जीत है लंकेश इसे समझाओ
अबकी सबको बता कर हार जाओ ना
दशानन अबकी हार भी जाओ ना।


-अजय राय

Monday, September 9, 2013

दिल्ली में पुस्तक लोकार्पण की तस्वीरें







महापुरुष नहीं बनाते इतिहास


हर एक दौर का मजहब नया खुदा लाया,
करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें।

यह शेर साहिर लुधियानवी का है। यहां नया खुदा शब्द गौरतलब है। सच तो है कि पुराने खुदाओं से किसी नए दौर में काम नहीं चलता। इतिहास अपने कालखंड का महापुरुष या नायक खुद तैयार करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि कोई महापुरुष आया हो और उसने इतिहास को बदला हो। भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना से उसके समापन तक लगातार आमजन उनसे लड़ते रहे। इनमें से कुछ तारीख के सफे पर दर्ज हो गईं और कुछ को इतिहास की कार्यवाही से बाहर ही रखा गया। इतिहास और इतिहासकारों के इस दृष्टि दोष तारीख के बाहर खड़े लोगों के नजरिए पर कुछ भी फर्क पड़ा हो लेकिन समस्या से जूझने वालों की प्रतिक्रिया नहीं बदली।
उत्तर प्रदेश के सुदूर पूर्व के जिले गाजीपुर की मुहम्मदाबाद तहसील पर 18 अगस्त 1942 को तिरंगा लहराने के प्रयास में आठ लोग शहीद हुए। सभी शहीद एक गांव शेरपुर के रहने वाले थे। शहीदों में शेरपुर के ही डा. शिवपूजन राय भी शामिल थे। वह इस आंदोलन के नेता थे। उनका जन्म एक मार्च 1913 में हुआ था। उनके घर के लोग यह तारीख 1910 मानते हैं। यहीं तिथि शहीद स्मारक मुहम्मदाबाद के शिलालेख पर दर्ज है। एक मार्च 1913 की तारीख शेरपुर गांव के पश्चिमी प्राथमिक पाठशाला के रिकार्ड में दर्ज है। उसमें यह भी दर्ज है कि उनको साल में दो कक्षाओं में प्रोन्नति दी गई थी। उनके भाई विश्वनाथ राय, जो सन 1942 में जेल गए थे, उन्होंने बताया था कि उनकी अपनी पैदाइश 1917 की है। इस लिहाज से विद्यालय के रिकार्ड में दर्ज तिथि कुछ ज्यादा गलत नहीं लगती है। इस तिथि का सटीक पता जन्मकुंडली से हो सकता था लेकिन वह भी उपलब्ध नहीं है। दरअसल मुहम्मदाबाद के आंदोलन के बाद गाजीपुर और बलिया जिले आजाद हो गए थे। वहां दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए सभ्य अंग्रेजों ने जो बर्बरता दिखाई, उससे जन्मकुंडली तक अछूती नहीं रही। उन्होंने शेरपुर गांव में 80 घरों को जलाकर राख कर डाला और 400 घरों में लूटपाट की। कैसा आतंक रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव राधिकारानी उनसे बचने के लिए गड्ढे में कूदना पड़ा और उनकी जान चली गई। यह तो सच का वह हिस्सा जो कहीं दर्ज हो गया है। पर यह बात कहां दर्ज है कि आततायी अंग्रेजों से बचने के लिए गांव के हजारों लोग पलायन कर गए थे। आंदोलन के नायक डा. शिवपूजन राय का घर जब अंग्रेज जला रहे तो उनका परिवार शेरपुर से गहमर की ओर पैदल ही भाग रहा था, जिसमें तीन बच्चे, कुछ महिलाएं थीं। तब जबरदस्त बारिश हो रही थी, जिसमें भींगने के कारण आंखें उलट गई थीं। तब उन्हें भोजपुर जिले के सेमरी गांव में शरण मिली थी। यह परिवार घर की जमापूंजी (चांदी के रुपये और गहने) जमीन में गाड़कर जौ छींट गया था ताकि लौटने पर जौ के सहारे जमीन खोदी जाए और जिंदगी को पटरी पर लाया जा सके। जब जान आफत में हो तो जन्मकुंडली की किसको परवाह थी। घर जला तो उसमें अनाज भी जला और जन्मकुंडलियां भी राख हो गईं।
इतिहास की दृष्टि से इन बातों को ज्यादा मायने लगता है लेकिन तत्कालीन पीड़ा की झलक इनमें जरूर है। इतिहासकार की दृष्टि दूर तलक देखती है, कई बार उनको नजदीक की चीजें दिखाई नहीं देतीं। इसीलिए प्राचीन भारतीय इतिहास पर जितना काम हुआ, उसका चौथाई काम भी 1942 के भारत छोड़ो के जन आंदोलन पर नहीं हुआ। शायद इसलिए भी कि इतिहासकारों ने इसे ज्यादा पुराना नहीें समझा और उसमें ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं समझीं। इतिहास की नई धारा सब आर्ल्टन स्टडीज में इतिहास की जड़ों की तलाश करने की कोशिश की गई। यह काम भी बाढ़ से उफनाई नदी के बीच की लहरें गिनने के प्रयास की तरह ही साबित हुआ। टुकड़ों में चीजों को खोजने की यह कोशिश भी किसी बड़े नतीजे पर ले जाती प्रतीत नहीं होती। सबने यह बात तो कहा कि जनता के आंदोलन की बदौलत 19 अगस्त 1942 को बलिया आजाद हो गया। किसी ने यह सवाल कहां पूछा कि इससे एक दिन पहले 18 अगस्त को गाजीपुर के मुहम्मदाबाद तहसील झंडा लहराते समय जो शहादत हुई, उसका क्या प्रभाव हुआ?
करो या मरो आंदोलन के बाद नेशनल हेराल्ड अखबार का प्रकाशन बंद हो गया था। वर्ष 1945 में जब अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ तो उसमें बलिया और गाजीपुर में अंग्रेजों के उत्पीड़न की दास्तान प्रकाशित की। गाजीपुर की नादिरशाही शीर्षक से लिखा-

पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) के अन्य जिलों की तरह गाजीपुर को भी 1942 और उसके बाद क्रूर दमन का शिकार बनना पड़ा। शेरपुर गांव, जहां शेर दिल लोग रहते हैं। इन लोगों ने कांग्रेस राज की स्थापना कर दी। उनका संगठन बेहतरीन था और उन्होेंने गांवों में कुछ दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से प्रशासनिक व्यवस्था संभाली। मगर कुछ ही दिनों बाद हार्डी और उसकी सेना ने मार्च करना शुरू कर दिया और इस प्रशासनिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर डाला। अखबर के मुताबिक 24 अगस्त को गाजीपुर का जिला मजिस्ट्रेट मुनरो 400 बलूची सैनिकों के साथ शेरपुर गांव पहुंचा। निहत्थे ग्रामीण हथियारबंद सेना का सामना नहीं कर पाए। सेना ने गांव में लूटमार शुरू कर दी। महिलाओं के गहने तक छीने गए। लोग घर-बार और संपत्ति फेंक कर भागे। इसमें गांव को दो लाख रुपये से अधिक की क्षति हुई।
अखबार ने आगे लिखा है कि मुनरो का कत्लेआम मुहम्मदाबाद तहसील की गोलीबारी के बाद ही पर्याप्त नहीं हुआ था उसने छह दिन बाद गांव में लूट और हत्या का नंगा नाच किया। अंग्रेजों के भय से राधिकारानी गड्ढे में कूद गई और मारी गई। (गौरतलब है कि उस समय गांव में बाढ़ आई हुई थी।) गांव में 80 घर जलाएग और 400 घरों को लूटा गया। अखबार में सिर्फ छह बहादुर लोगों की शहादत का जिक्र है। हालांकि यहां डा. शिवपूजन राय, ऋषेश्वर राय, वंश नारायण राय पुत्र ललिता राय, वंश नारायण राय पुत्र जोगेंद्र राय, नारायण राय, राज नारायण राय, राम बदन उपाध्याय, वशिष्ठ नारायण राय आदि आठ लोग शहीद हुए थे। सीताराम राय, श्याम नारायण राय, हृदय नारायण राय पाठक जी अंग्रेजों की गोली से घायल हुए और गिरफ्तारी भी झेली। मुनरों और उसके सैनिकों की लूटपाट में जान बचाने के चक्कर में राधिकारानी नहीं बल्कि रमाशंकर लाल और खेदन यादव भी मारे गए थे। समाचारों को तत्कालीन इतिहास माना जाता है लेकिन यहां उसमें भी चूक दिख रही है। यहां दो वंश नारायण हैं, जिसके चलते पत्रकार को चूक का मौका मिला। हालांकि अखबारे में लिखे नामों में भी कई तरह की चूक है।
खबरों को त्वरित इतिहास माना जाता है लेकिन यहां भी कम चूक नहीं होती। चूक के पीछे कई बार वह मध्यवर्गी दृष्टि है जो आम आदमी की वास्तविक गाथा तक आसानी से जाने नहीं देती। तमाम तर्कों और प्रमाणों की दुहाई देते हुए भी इतिहासकार कई बार ऐसी चूक करते हैं। लंदन में रहने वाले एक इतिहासकार, जिनके लेखन पर तमाम इतिहासकारों को भरोसा था, उन्होंने गांवों में अंग्रेजी राज के दौरान रुपये में मजदूरी के भुगतान और अनाज की कीमत का चार्ट प्रस्तुत किया है। कई बार इस तरह के आभाषी चिंतन हमें तंग करते हैं। जनसंघर्ष और मामूली आदमी की गैरमामूली दास्तान को समझने के लिए ऐसे दृष्टिदोष से उबरना उचित जान पड़ता है। खतरा सूचनाओं की कमी ही नहीं बल्कि उनके अतिरेक से भी होता है। किसी शायर ने ठीक कहा है कि -सच घटे या बढ़े तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं। मुहम्मदाबाद शहीद स्मारक समिति के दस्तावेज में कृपाशंकर राय, रामाधार राय, जमुना राय, जगदीश शास्त्री, रामनरेश यादव, रामबदन को घायल बताया गया है। उनके साथ 25 लोगों की गिरफ्तारी बाद में हुई थी। शहीद स्मारक समिति के दस्तावेज में शहीदों की शैक्षणिक योग्यता बढ़ाचढ़ा कर दिखाई गई है। शहीद स्मारक समिति ने तो एक झंडे को भी सहेज कर रखा है, जिसे अगस्त क्रांति में तहसील पर फहराया गया तिरंगा बताया जाता है। इतिहास में इस तरह के अतीतमोही कथातत्वों से परहेज भी जरूरी है। गौर करने वाली बात है कि जहां शहीदों की जन्मकुंडलियां सुरक्षित नहीं बची थीं, वहां ध्वज कैसे बचा रह गया था।
मुहम्मदाबाद तहसील की घटना न तो सहसा हुई और न ही उसे इतिहास के कालखंड काटकर किसी अनूठी घटना के रूप में रेखांकित करने की जरूरत है। मुंबई में 9 अगस्त 1942 को करो या मरो आंदोलन के ऐलान के बाद उसकी अलग-अलग जगहों पर जुदा-जुदा तरीके से प्रतिक्रियाएं हुईं। हर जगह की प्रतिक्रिया में वहां के स्थानीय लोगों ने हिस्सा लिया और वे अपनी संस्कृति और समस्याओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया करने के तौर-तरीके छोड़ कर नहीं आए थे, लिहाजा उन्होंने अपने तरीके से चीजों को समझा उसे अभिव्यक्त किया। उनका लक्ष्य अंग्रेजों को खदेड़ना था। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। लगातार जारी आंदोलनों से देश तैयार हो चुका था और नौजवानों की एक टीम इस आंदोलन को अंजाम देने में सक्षम हो गई थी। यह टीम वैचारिक तौर पर सक्षम भी हो चुकी थी।
गरुआ मकसूदपुर के रहने वाले बेणी माधव राय को पर्चा बंटते समय पुलिस ने पकड़ा था। उन्होंने 1930 में शिवपूजन राय को अपना नेता बताया था। राव साहब के नाम से वह पत्रवाहक का काम करते थे। गाजीपुर से बलिया के बीच गुप्त पत्र पहुंचाना उनकी जिम्मेदारी थी। वर्ष 1935-36 में वह महानंद मिश्रा के संपर्क में आए थे। गुप्त पर्चे लगातार छपते और बंटते थे। वाराणसी उनका केंद्र था। डा. शिवपूजन राय 1932 में गाजीपुर जिला कांग्रेस के महामंत्री थे। गाजीपुर के मिशन स्कूल से उनको एक आंदोलन की अगुआई करने पर उनको, धर्मराज सिंह, नारायण दत्त और इंद्रदेव सिंंह को निष्कासित किया गया था। उनको आगे की पढ़ाई के लिए वाराणसी आना पड़ा। यहां जयनारायण कालेज और हिंदू स्कूल में पढ़ाई के दौरान शचिंद्रनाथ सान्याल से उनका संपर्क हुआ। गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी हुआ तो कोलकाता चले गए और होम्योपैथिक चिकित्सा हासिल की। हालांकि वह विज्ञान में स्नातक के छात्र थे लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए थे। कोलकाता से लौटने के बाद उन्होंने गांव में रहकर लोगों को दवाएं देनी शुरू की और अंग्रेजों के प्रति गोलबंद करना शुरू किया। वह अनुशीलन समिति और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से भी जुड़े रहे। चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों से उनका गहरा रिश्ता था।
आठ अगस्त को मुंबई में भारत छोड़ो ऐलान होने के बाद गाजीपुर जिले में आंदोलन की आग भड़क गई। नंदगंज, सादात, बनारस, सैदपुर हर जगह अंग्रेजों का विरोध शुरू हो गया। अगस्त क्रांति की आग अचानक शेरपुर या मुहम्मदाबाद से नहीं भड़की। यमुना गिरी के नेतृत्व में गौसपुर हवाई अड्डे पर पहले ही तोड़फोड़ हो चुकी थी। बीज गोदाम, पोस्टाआफिस, रेलवे स्टेशनों आदि में लूटपाट की घटनाएं गाजीपुर जिले में हफ्ते भर चलती रहीं। मुहम्मदाबाद में जो हुआ उसकी परिणति था। 18 अगस्त 1942 को बाढ़ आई थी। शेरपुर गांव चारों तरफ से पानी से घिरा था। इसके बावजूद गांव के लोग एकत्रित होने लगे। मंगलवार का दिन था, लिहाजा बजरंग बली का दर्शन-पूजन के बाद लोग नावों पर सवार होकर सड़क पर पहुंचे। वहां निर्णायक हमले की रणनीति बनाई गई। तय किया गया कि मजबूत नौजवान तहसील में पीछे से दाखिल होंगे और नेता आगे से आएंगे। सूचना मिली थी कि तहसील में 35 सशस्त्र जवान तैनात हैं। तय किया गया कि 70 पहलवान किस्म के युवक पीछे से जाकर उन पर काबू पा लेंगे। इस तरह गांधी जी की अहिंसा की लाज रह जाएगी और झंडा भी फहरा दिया जाएगा। मगर तहसील परिसर में दाखिल होते ही नौजवानों की टोली ने जय बजरंग बली का नारा लगाकर सिपाहियों पर झपट्टा मारा ही था कि गोलियां चलने लगीं। एक के बाद एक तीन लोग वहीं मार दिए गए। श्यामू दादा ने बंदूक की नाल में उंगली डाल दी और उनकी उंगली उड़ गई। उसके बाद दो बंदूकें छीन ली गईं। मुख्य गेट की ओर से डा. शिवपूजन राय के नेतृत्व में आए लोगों पर भी गोलियां चलने लगीं। घायलों और मृतकों को वाहनों पर लाद कर अंग्रेज साथ लेते गए। मारे गए लोगों को उन्होंने कठवापुल के पास नदी में प्रवाहित कर दिया। डा. शिवपूजन राय का शव प्राप्त नहीं हुआ।
गाजीपुर और बलिया के क्रांतिकारियों के बीच लगातार संपर्क बना था। लिहाजा इस घटना के अगले दिन बाद ही आंदोलन की चिनगारी बैरिया, बलिया में फैल गई। इसके नेता महानंद मिश्र थे। उनका सीधा रिश्ता गाजीपुर के आंदोलनकारियों से था। इस संपर्क को निरंतर बनाए रखने का काम वेणीमाधव राय करते है, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। बलिया आजाद हो गया। आजादी के बाद बलिया का गुणगान खूब हुआ लेकिन गाजीपुर को भुला दिया गया। हालांकि 1945 में सूबे में अंतरिम सरकार बनने के बाद पं. जवाहरलाल नेहरू और फीरोज गांधी बलिया गए और शेरदिल जवानों का गांव देखने शेरपुर भी आए। शेरपुर के नौजवानों की शहादत भले ही भारत में अख्यात रही हो लेकिन लंदन में जब भारत के भविष्य पर चर्चा चल रही थी तब गाजीपुर के कलक्टर के उस डिस्पैच को उद्धृत किया गया, जिसमें उसने कहा था कि पढ़े-लिखे नौजवान सीने पर गोली मारने का आग्रह कर रहे हैं। अब हिंदुस्तान को गुलाम नहीं रखा जा सकता।
बात डा. शिवपूजन राय की जन्मतिथि से शुरू हुई थी। उसका हमारे पास कोई रिकार्ड नहीं है, सिवाय शेरपुर के बेसिक प्राइमरी पाठशाला के रिकार्ड के। वहां दी गई जन्मतिथि हेडमास्टर की कल्पना का हिस्सा है। भारतीय इतिहास की परंपरा लेखन की कम और श्रुति की ज्यादा रही है। यह बात सुनने को मिली थी। जब डाक्टर शिवपूजन राय होम्योपैथी की पढ़ाई करके गांव आए तो उन्होंने लोगों को मुफ्त दवाएं देनी शुरू की। उनके पिता वीरनायक राय कंजूस माने जाते थे। पिता से छुपा कर वह लोगों को दवाएं देते थे। उनकी क्लीनिक भी गांव के ही किसी अन्य व्यक्ति के दरवाजे पर थी। एक दिन उनके पिता ने पूछा कि दवा देने के बाद वह मरीजों के कुछ पैसा लेते हैं या नहीं। झिझकते हुए उन्होंने कहा कि ले लेता हूं। उनके पिता ने कहा कि साल में सौ रुपया हमसे दवा का ले लेना, किसी उसके पैसे मत लेना। जब लोग ठीक होकर मुस्कुराते हैं तो अच्छा लगता है। यह एक पहलू है लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि गांव में क्रांतिकारी गतिविधियों का विरोध करने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। इन्हीं दो ध्रुवों के बीच दो हजार से ज्यादा लोग एक ही गांव से तहसील पर झंडा फहराने के लिए चल पड़े थे क्योंकि जब तूफान आता है तो तिनकों का पता नहीं चलता। चंद्रशेखर आजाद की मौत के बाद क्रांतिकारी आंदोलन में बिखराव आ गया था लेकिन 1942 में जो कुछ हुआ उसकी अगुवाई भी सर्वथा नई ताकतों ने की थी क्योंकि कांग्रेस के स्थापित नेता तो जेल जा चुके थे।

मुहम्मदाबाद का आंदोलन किसी अन्य क्षेत्रों में अंग्रेजी राज के प्रति भड़के जनाक्रोश की प्रतिकृति ही दिखाई देता है लेकिन यह कुछ मायनों में अलग भी है। पूरे देश में ऐसा कोई आंदोलन नहीं हुआ होगा, जिसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए हों। शेरपुर से शुरू जुलूस में मुहम्मदाबाद तक पहुंचते-पहुंचते आसपास के कई गांवों के लोग शामिल हो गए थे। इसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, जिन्हें तहसील से पहले ही लौटना पड़ा था। यह निरबंसी आंदोलन भी नहीं था। मुहम्मदाबाद में हुई शहादत के नतीजे निकले। इसकी वजह से देश का यह हिस्सा 18 अगस्त 1942 को आजाद हो गया। इसके बाद बलिया आजाद हुआ। लोगों ने 26 अगस्त तक यानी आठ दिनों अपना प्रशासन कायम किया। वह एकदम शांतिपूर्ण था। गांव में दो बंदूकें आ गई थीं लेकिन दमन के दौरान भी किसी ने उन्हें चलाया नहीं क्योंकि नेता का ऐसा आदेश नहीं था। इस आंदोलन ने अंग्रेजों और कांग्रेस के नेताओं को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया।

अजय राय

Tuesday, July 23, 2013

मकान

लोहा को जमीन के भीतर से निकाला
रेत निकाला नदियों की तलहटी से
पहाड़ों को तोड़ बनाए गिट्टियों के बीज
मिट्टी को कोयले की आंच में पका
बनाया एक नंबर, दो नंबर सूर्ख ईंटे।  
 
 
रेत, सीमेंट, ईंट, कुछ छड़ें, ईंटें  
जमीन में बो आया एक दिन
आस थी कि मकान उग जाएगा किसी रोज
सींचता रहा रोज-रोज आस की खेती
 
पहाड़ बढ़ता रहता है रोजरोज
बालू बहता है नदी के संग-संग
लौह अयस्क बदलता है रूप धरती में
सब जिंदा हैं, जीवंत कायनात में
 
 
फिर भी खेती उगी नहीं कभी
बहुत सींचा, रात-रात भर जाग
जमीन पर नहीं उगी एक झोपड़ी भी
 
 
गिट्टियों ने कहा, पहाड़ के संग बढ़ती थी मैं
बोली रेत, नदीं के प्यार में बहती थी वह
माटी बोली, मुझे तपा बना दिया सूर्ख ईंट
कर दिया उलट-पुलट सब, तोड़ दिए कई घर
 
क्यों किया लोहा को धरती से जुदा
क्यों‌ किया रेत को नदी से अलग
क्यों किया पहाड़ में तोड़फोड़
 
धरती को चीर-फाड़ कर कैसे रहोगे आबाद
कैसा है बेदर्द तुम्हारा घर का यह ख्वाब।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

राष्ट्रवादी

जन्म हुआ हिंदू के घर में
हिंदू हूं,  हिंदूवादी नहीं हूं।
 
भारत में जन्म हुआ
उसका आकाश, उसकी माटी
उसके पाताल सब मुझमे हैं
भारतीय हूं,  भारतवादी नहीं हूं।
 
गुंजाइश कहां देता है देश
कि हिंदू न रहूं,  भारतीय न रहूं।  
 
जो राष्ट्र है मेरे अंदर-बाहर
दाएं-बाएं, अगल-बगल, नीचे-ऊपर
उसको कैसे अपनाऊं
कोई सिद्धांत बनाकर, कोई वाद समझकर।
कैसे बन जाऊं राष्ट्रवादी, कोई बताए मुझे।
 
 
 
 


 

Thursday, May 16, 2013

बुनकर की बेटी सबीना

जिंदगी की जंग में हार गई
बुनकर की बेटी सबीना।
पहले अंतडि़यां धंसीं पीठ में
फिर फेफड़ों में सांस
भरने की जगह न रही

डायरिया से मारी गई सबीना।
सुना है डायरिया से ज्यादा
कुत्ती चीज है भूखसबीना को उसने सताया कई बार।

कहते हैं साहब लोग
बहुत खतरनाक चीज है क्षय रोग
जूझने में नाकामयाब रही सबीना।


लाल राशन कार्ड, आवासवृद्धा पेंशन, पारिवारिक हित लाभकुछ को दी गई नोटिसइस तरह निभाई चालीसवें की रस्म
जब दुनिया में नहीं रही सबीना।

Wednesday, April 24, 2013

कुछ यूं हुए तक्सीम हम

बड़े भाई ने भरा फार्म
छोटे भाई ने भी भरा फार्म
पिता रह गए अकेले
उन्होंने लिखा माता का नाम
जमा कर आए फार्म
कुछ यूं भरा गया राशन कार्ड
कुछ यू हो गए तक्सीम हम
पहले रसोई गैस के चक्कर में
फिर बांट दिए गए हम
कोटे पर मिलने वाले
गेहूं, चावल, चीनी
केसोसिन तेल के फेर में।
प्रकृति की देन के तिजारत में
तक्सीम होते गए रिश्ते
बंटते गए बाप-बेटे, पति-पत्नी, मां-पिता
बिना जाने समझे होते गए तक्सीम सब।


बिल्लियां, बच्चियां, मोमबत्तियां

दुनिया बनी तब बिल्ली बनी थीदुनिया बनी तब सड़क नहीं थीदुनिया बनी तो आदमी बनेपहिया बना, गाडि़यां बनीं, सड़कें बनी
आदमी ने लिखना-पढ़ना सीखा
संविधान रचा गया, जिसमें लिखा
बिल्लियां नहीं काट सकतीं रास्ता
अनपढ़, अनजान, अभागी बिल्लियां
रास्ता काट मारी जाती हैं ट्रकों से कुचल

दिल्ली से दौलताबाद तक कुचलती
अबोध बच्चियों ने भी नहीं पढ़ा संविधान
जिसे बदलने के वास्ते पिघल रही मोमबत्तियां।

Tuesday, January 15, 2013

राजनारायण को देखा नहीं कभी

मैंने राजनारायण को नहीं देखा। उस राजनारायण को नहीं देखा जिसकी तस्वीर दुनिया देखने के लालायित थी। जब उन्होंने अजेय इंदिरा गांधी को न्यायपालिका और जनता की अदालत में हराया तो उनकी तस्वीर देखने के लिए अमेरिका लालायित था। अमेरिका से आने वाले भारतीय बनारस में स्टूडियो से उनकी तस्वीरे खोजते थे।गांधी जी की तस्वीर तीन लाइनों में कोई कलाकार बना सकता है। राजनारायण की तस्वीर बनाने के लिए कार्टूनिस्ट कांजीलाल दादा को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती होगी। लोको इंजन के चालक की तरह एक रूमाल पेशानी पर बांधने और दाढ़ी खींचने से काम चल जाता होगा। उस राजनारायण को मैंने नहीं देखा।
लोकसभा चुनाव का मतदान हो चुका था। सन 1984 में डबल बूस्टर लगाने पर टेलीविजन दिखता था। मतगणना टेलीविजन वाले घरों में नए साल के जश्न की तरह होता था। आधी रात को बहू बेगम फिल्म रोक दी गई। बागपत के नतीजे प्रसारित किए गए, जिसका सबको पता था। वहां से हनुमान (राजनारायण) राम (चौधरी चरण सिंह ) से लड़ रहे थे और हार गए। तब भी मैंने राजनारायण को नहीं देखा। सन 1977 के चुनाव में गांवों में नासमझी में नसबंदी के तीन दलाल, खा गई राशन, पी गई तेल जैसे नारे लगाए थे। उस समय भी राजनारायण को नहीं देखा था। उस राजनारायण को जिसने लोकतंत्र क्रांति के लोहे पर निर्णायक चोट मारी थी। मैंने इस बात को लड़कपन में नहीं समझा लेकिन जो उस आंदोलन से निकल कर आए उन्होंने क्यों नहीं समझा? यह बात मैं उसी तरह नहीं समझ पाया, जिस तरह राजनारायण को देख नहीं पाया। उस दौर के तमाम नेताओं को मैंने देखा। चौधरी चरण सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, मोरारजी भाई देसाई, दक्षिण से आने वाले नंदमूरि तारक रामाराव को भी लेकिन राजनारायण को क्यों नहीं देखा जबकि वह सबसे करीब के रहने वाले थे। बहुगुणा को अमिताभ बच्चन के हाथों हारते देखा था तब भी राजनारायण को नहीं देख पाया।
गांव में पंडितों ने यजमानों के यहां पूड़ी खाना बंद कर दिया। भोज-परोज में वे खाते ही नहीं थे जब तक कि यजमान उनको दिखा न दें कि खाना देशी घी में बन रहा है। तीसी, बर्रे का तेल उस जमाने में कीमती हो गया था। बताते हैं कि इसमें राजनारायण का हाथ था। उनसे किसी ने वनस्पति तेल में चर्बी मिलाने की बात कही थी और उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया था। आंदोलन गांव-गांव में चला गया। अपने तेल, घी पर लोग भरोसा करने लगे। इस तरह मैंने राजनारायण को महसूस किया, देखा तब भी नहीं।
महसूस उनको तब भी किया जब बनारस में स्वास्थ्य की रिपोर्टिगिं कर रहा था। स्वास्थ्यमंत्री रहते हुए उन्होंने इलाज एकदम मुफ्त कर दिया था। अस्पताल में अठन्नी की पर्ची बनती थी। उनके जाने के डेढ़ दशक बाद उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में यूजर चार्जेज लगने शुरू हुए। उन्होंने गांवों में सेहत की आरंभिक देखभाल के लिए स्वास्थ्य सेवकों की तैनाती की थी। बाद में कांग्रेस की सरकारों को उनकी फिक्र नहीं रही। उनको डेढ़-दो सौ रुपये का मानदेय भी नहीं मिलने लगा। उनमें से तमाम ने झोलाछाप डाक्टर के रूप में काम करना शुरू कर दिया और लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने लगे। उनकी लड़ाई को अपनी आंखों में मैंने देखा लेकिन राजनारायण को तब भी नहीं देखा पाया। आज आशा बहुओं की तैनाती हो गई है गांव-गांव लेकिन तब किसी ने राजनारायण को नहीं सोचा होगा। कागज के रुपये देख कर कोई मुहम्मद बिन तुगलक को याद करता है क्या? तो आशाओं को देख कर कोई राजनारायण को क्यों याद करे?
काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश पर कोई रोक नहीं है। मंदिर के मुख्य द्वार पर एक दशक पहले तक एक बोर्ड लगा था, जिसमें लिखा था कि इस मंदिर में सनातन धर्म में आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति प्रवेश कर सकता है। अब वह भी हट गया है। यह अनायास नहीं हुआ था। राजनारायण, प्रभुनारायण सिंह सरीखे नेताओं ने 1956 में इसके लिए आंदोलन चलाया था। करपात्री स्वामी जैसे सनातनधर्मियों को बात नागवार गुजरी थी। उन्होंने अलग विश्वनाथ मंदिर स्थापित कर लिया लेकिन भगवान को भी भक्त की दरकार होती है। बाबा विश्वनाथ अपने मंदिर में ही बने रहे और आस्थावानों के केंद्र में रहे। मंदिर में जाते समय कोई कहां सोचता है कि राजनारायण ने उसके पट को विरोध के बावजूद सबके लिए खोलवा दिया था। सनातन और पुरातन नगरी काशी को इस बात पर गर्व हो सकता है कि उस नगरी में प्रायर् सभी मंदिरों में छुआछूत का मर्ज नहीं है। किसी मंदिर में जाते समय मैं क्या कोई नहीं सोचता कि राजनारायण नहीं होते तो क्या होता? संकट मोचन विस्फोट के समय बेरोकटोक मंदिर में जाने से झिझक रही बसपा अध्यक्ष मायावती सम्मान पाकर जब भावुक हो गईं थी, तब उनके जेहन में राजनारायण की छवि उभरी थी या नहीं, नहीं जानता। इतना जरूर जानता हूं कि तब मैंने भी नहीं सोचा था कि राजनारायण को देखा क्यों नहीं?
अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के वे अगुवा थे। विक्टोरिया की मूर्ति उनके नेतृत्व में ही हटाई गई थी। यह बात मैंने सुनी है। इसे उसी तरह नहीं देखा, जैसे राजनारायण को नहीं देखा। बनारस का जिला प्रशासन भी उन्हें कोई मशहूर हस्ती तो मानता नहीं। वेबसाइट में हस्तियों की सूची में तो उनके नाम का उल्लेख उसी तरह नहीं है जिस तरह रविदास का नहीं है। प्रशासनिक वेबसाइट पर मशहूर हस्ती वह भले न हो लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची में राजनारायण, पिता-अनंत नारायण सिंह, गंगापुर, ही पार्टिशिपेटेड इन फ्रीडम फाइटिंग इन 1942-लिख कर उनका मान जरूर बढ़ाया है। मैंने काफी खोजने के बाद यह बात देखी लेकिन राजनारायण को फिर भी नहीं देखा। राजनारायण के नहीं होने पर इंदिरा गांधी कोर्ट नहीं हारतीं। नहीं हारतीं तो इमरजेंसी नहीं लगती। इमजेंसी नहीं लगती तो तमाम लोग का वजूद भले ही होता लेकिन उनके होने के मायने नहीं होते। उनकी तरह राजनारायण की अनदेखी नहीं कर रहा बल्कि सिर्फ इतना कह रहा हूं कि बस मैंने उनको देखा नहीं।

-अजय राय 

Wednesday, January 2, 2013

इतिहास



इतिहास की किताब होती हैं स्त्रियां
उन्हें भूगोल मान कर पढ़ने की कोशिश
गलती को न्योता देना है
दिल वालों, दिल्ली वालों।

भूगोल के मर्मज्ञ भी
छोड़ नहीं पाते लोभ
भूगोल का इतिहास जानने का
स्त्रियों के अतीत में झांकने का
मुनियों ने गुना, शास्त्रों में कहा
होता है पाप का कारण लोभ
बेहतर है छोड़ दिया जाए
इतिहास में झांकने का लोभ

अभी वक्त नहीं आया
स्त्रियों के तारीख के खुलने का
कोई सह कहां पाएगा आज
उसकी दहन, उसका ताप
दिल वालों, दिल्ली वालों।

जनतंत्र का तकाजा


तकाजा तो था कि
तुम कहते, हम सुनते
जब हम बोलते
तब तुम चुपचाप सुनते

जब मैं बोलता हूं
तब तुम सुनते नहीं
अपनी ही कहेगे तो
कहां पहुंचेंगे सब

कुछ कहेंगे आप
हम तकाजों का करते रहेंगे तकादा
तो कहां जाएगा देश
क्या जनतंत्र कहलाता रहेगा यूं हीं नाखादा
या कहने, सुनने की नातेदारी से
बनेगी बात कोई अब।