Friday, October 3, 2014

मेरे गांव की नदी

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सूखे में उफनाती
बाढ़ में दुबराती
करती कई कमाल
मेरे गांव की नदी
 
 
कहते हैं चाचा सलखन
जड़ें हैं इसकी गहरी
पाताल तक छितराई हुई
ईरान से तूरान और
चीन से जापान तक
भीतर-भीतर पसरी  
मेरे गांव की नदी
 
दुनिया के कोने-कोने में
कई तहखाने हैं इसके
जिनमें छुपा रखती है खूब पानी
मेरे गांव की नदी
 
तपती है धरती जब
व्याकुल हो उठती हैं नदियां जब
फुंफकारती है, उफनाती है
तहखानों से पानी ला
हो जाती है लबालब
मेरे गांव की नदी
 
जब नदियां सूख जाती हैं तब भी
चलते रहते हैं कारोबार इस पर
चलते रहते हैं मालवाहक जहाज,
चलती रहती हैं सैलानियों भरी नावें
गुलजार रहती है मेरे गांव की नदी
 
ख्वाबों की केती को सींचती हुई
सपनों की प्यास का पसारा समेटती
पत्थरों, रोड़ों को पीस बालू बनाती
दौड़ती जाती है मेरे गांव की नदी
 
 
डरते हैं आचमन करने में   
कोई नहीं पीता इसका पानी
कहते हैं चाचा सलखन
शापित है मेरे गांव की नदी।
 

अजय राय  

Wednesday, January 1, 2014

खुलती जाती हैं गांठें

गहरा है माया का जाल
माया की भाषा में सच नहीं बंधता
वो जानते हैं भाषा का मर्म
वो कहते हैं सहलाने नहीं,
समझने-समझाने की चीज है मर्म
 कौन समझाए उनको
क्यों समझ में आता नहीं मर्म
कभी उसे सहला कर देखो
देखो कैसे खुलती जाती हैं गाठें  



 

एक और साल

मुट्ठी में बंद थीं उम्मीदें
भींची थी मुट्ठी कस के
पसीने-पसीने हो सरक गया
रीत गया एक साल
बीत गया एक साल
दोस्तों की बधा‌इयों से उपजा
घड़ी की टिक-टिक से निकला
छल गया एक और साल